गुरु घासीदास जी जयंती के जन्मदाता नकुल दादा जी
कुजूराम रात्रे
महासमुन्द :- नकुलदेव ढीढी जी का जन्म महासमुंद जिले के ग्राम भोरिंग में हुआ था,12 अप्रैल सन 1914 को सपन्न कृषक पिता अमरसिंह जी एवं माता कौशिल्या देवी के घर में हुआ था।नकुलदेव दादा प्राथमिक तक शिक्षा प्राप्त किया था.
सत- जीवन व्यवहार :- नकुल देव ढीढी जी ने गुरु घासीदास जी के अमृतवाणी को आत्मसात किये थे, सत्य को जानो, छानो, तब मानों, अर्थात वास्तविकता पर आधारित बात को मानना चाहिए. समाज में अंधविश्वास व रूढ़ीवाद के लिए कोई स्थान नहीं हैं, प्रेम, दया, करूणा, क्षमा, विनय और शील सभी मानवीय गुण हैं. मानवीय गुणों का असर सदैव एक जैसा होता है, कभी बदलता नहीं. अनादि काल से मानवतावादियों द्वारा सत्य व सत की प्रक्रिया जारी है. यही सतनाम मिशन है. सामाजिक व आर्थिक गैर बराबरी मिटना जरूरी है.
जन्म, जीवन व मरण कटु सत्य है. सतनाम मिशन के लिये रिले रेश जरूरी है. सत्य व सत के वाहक क्रमशः अपनी-अपनी पारी खेल कर जाते रहे हैं. छत्तीसगढ की धरती में बाबा गु्रू घासीदास जी 18 दिसंबर 1756 से 20 फरवरी 1820 तक सतनाम मिशन को आगे बढ़ाते रहे. 1820 से 1830 तक उनका बौद्धिक क्रान्ति का व्यापक असर पड़ा.
रावटी के माध्यम से जन चेतना व सतनाम का प्रचार-प्रसार
प्रथम रावटी, चिरई पदर – बस्तर जिला, दूसरा रावटी-कांकेर, तीसरा रवटी- पानाबरस मोहला – राजनांदगांव जिला. चौथा रावटी, डोंगरगढ – राजनांदगांव जिला, पांचवा रावटी, गंडई के भंवरदाह जंगल – राजनांदगांव जिला. छठवां रावटी-भोरमदेव – कवर्धा जिला. सांतवा रावटी- दलहा पोडी – बिलासपुर जिला.
मिशन का संकल्पना ( पहाड़ी में चढ़ने की प्रक्रिया ) होती है. चढ़ते वक्त, ढलान में खड़े रहने के लिये भी ताकत लगाना होता है. मिशन को अपने स्थान पर बनाये रखने के लिये भी ताकत लगाना होता है. मिशन को निरंतर आगे बढ़ाने के लिए केन्द्र बिन्दुओं की जरूरत होती है. यह वैज्ञानिक अनुसंधान प्रमाणित है. सतनाम मिशन को गति प्रदान करने के लिए मंत्री नकुल देव ढीढी ने छत्तीसगढ में दो सशक्त केंद्र बिंदु सृजन किए हैं.
प्रथम केंद्र बिंदु :- 18 दिसंबर गुरू घासीदास बाबा जयंती की शुरुआत की. उन्होंने जयंती की शुरुआत 18 दिसंबर 1936 को अपने गृहग्राम भोरिंग (महासमुंद) से किए, जो 1938 में वृहद रूप लिया और पूरा समाज न स्वीकार किया.
द्वितीय केंद्र बिंदु :- तीन दिवसीय गिरौदपुरी मेला प्रारंभ किया. 1961 से फागुन शुक्ल पंचमी, षष्ठी व सप्तमी, सन् 1935 में एक दिवसीय मेला माघी पुन्नी को गुरु अगमदास जी शुरूआत किए थे.
इन्हीं दो प्रमुख केन्द्र बिन्दुओं के माध्यम से ही सतनाम मिशन आगे बढ़ते नजर आ रहा है, जिसके प्रभाव सबके समक्ष हैं. 1970 में छत्तीसगढ में 18 दिसंबर गुरू घासीदास दास जी की जयंती की छुट्टी मिलनी शुरू हुई. 1972 में पूरे मध्य प्रदेश में 18 दिसंबर को अवकाश घोषित किया गया, इन दोनों कार्यों के अलावा भी दादा जी छत्तीसगढ़ राज्य के मांग को लेकर 1972 छत्तीसगढ़ के प्रथम छत्तीसगढ़ीया सपूत जो जेल गए.
16 जून 1983 को बिलासपुर में विद्यालय की स्थापना की गई. जो आज केंद्रीय विश्वविद्यालय है. गुरू घासीदास बाबा पर शोध टीम का गठन किया गया. शोध के आधार पर डॉ हीरालाल शुक्ल द्वारा : ” गुरु घासीदास – संघर्ष समन्वय और सिद्धांत ” का प्रकाशन ।( महत्वपूर्ण जानकारियां सामने आई हैं )
1987 गुरू घासीदास जी पर टिकट जारी की गई. गिरौदपुरी में कुतुबमीनार से भी ऊंचा जैतखाम का निर्माण हुआ है.
राजनीतिक यात्रा :- बहिष्कृत हितकारिणी सभा, डिप्रेस्ड क्लासेज फेडरेशन, लेबर पार्टी के बाद 1942 में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ( SCF) और 1957 में रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया ( RPI ) बना. देश के वंचितों को विशेष अधिकार (सिद्धांत रूप से) प्राप्त हुए हैं. व्यावहारिकता के लिए संघर्ष करना होगा. पहली लोकसभा के चुनाव में SCF भाग लिया. 1957 के चुनाव में RPI सामने आया.
मंत्री दादा नकुलदेव ढीढी के नेतृत्व में ही लोग जुड़ते गए. 1930 में जंगल बचाओ आंदोलन से जुड़े. 1937 में पथ प्रदर्शक महासभा ( पंजीयन क्र 15 ) का गठन हुआ. उन्होंने 18 दिसंबर 1936 को गुरू घासीदास बाबा की जयंती की शुरुआत की. अनुभवी जनों से प्रेरणा लेकर प्रामाणिकता के आधार पर गुरू घासीदास का जन्म दिवस 18 दिसंबर 1756 निर्धारित हुआ.
आजादी के बाद SCF से जुड़ गए. 1948 को अखिल भारतीय सतनामी महासभा ( पंजीयन क्र 75 ) का गठन किया. 1951 में सेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन – छत्तीसगढ इकाई का गठन हुआ. 1952 के पहली लोक सभा चुनाव सेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन ( हाथी चुनाव चिह्न ) से लड़े. 1957 के लोक सभा चुनाव आर पी आई ( हाथी चुनाव ) के बैनर से लड़े. 1961 में आरपीआई छत्तीसगढ इकाई का गठन हुआ, जिसमें अध्यक्ष नियुक्त हुए. 1970 के आरपीआई बंगलोर सम्मेलन में पृथक छत्तीसगढ राज्य का प्रस्ताव पास कराए. अक्टूबर 1972 को पृथक छत्तीसगढ राज्य आंदोलन में जेल गए.
साहेब सतनाम गुरु घासीदास जयंती के शुरुआत
1936 से पहले हमारे समाज में गुरु घासीदास जयंती नही मनाते थे, लेक़िन इसका मतलब यह नही की गुरु घासीदास बाबा जी को जानते भी नही थे… गुरु घासीदास जी व उनके सतनाम और सत प्रमाण और उनके कार्यों को सब जानते थे बस जयंती नहीं मनाते थे… तो जयंती के शुरुआत सतनामी समाज में कुछ इस तरह से हुआ कि..
जिस समय जयंती शुरुआत हुआ उसके पहले या कह सकते है उस समय ईसाइयों के मिशनरी जोरो से चल रहा था धर्म परिवर्तन कराने का.. औऱ घरो घर जाकर अपने ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे थे… उसी समय ईसाई पादरी गुरु कांगड़ी प्रचार करते करते एक बार मंत्री नकुल दादा जी के घर पहुंचे उस समय घर मे नकुल देव ढिढि जी तथा उनके दादा जी बैठे थे उसी समय पादरी गया और अपने यीशु के गुणगान करने लगे कि हमारे यीशु परमेश्वर सबके तन तकलीफ दूर करते है, परमेश्वर के शरण मे आने से बड़े से बड़े बीमारी दूर कर देता है, अंधे को आंख देते है बहुत कुछ आप लोग भी ईसाई धर्म अपना लेते… तभी इन सब बातों को सुनकर उत्साह के साथ नकुल जी बोले कि ” हमारे परम पूज्य गुरु घासीदास जी तो मरे आदमी को जिंदा किये है अब तुम सतनाम धर्म अपना लो न..” नकुलदेव जी के बात सुन पादरी बोले कि अरे ये तो और भी बहुत अच्छा बात है वे भी परमेश्वर के दूत है.. उनका जन्म कब हुआ और कहा हुआ है.. पादरी के इस बात से नौजवान नकुलदेव जी झंझोट गए क्योकि उन्हें गुरु घासीदास जी के जन्म तिथि पता ही नहीं था दादा जी को पूछे तो उन्हें भी पता नही था… तभी पादरी बोले कि कोई बात नही है इतने बड़े संत है आप लोगो के गुरु है तो उनका जन्मदिन तो आप लोगो को मनाना ही चाहिए… इसमें नकुलदेव जी बोले की लेकिन हमे तो पता नही है उनके जन्मतिथि तो कैसे मनाये..?
पादरी बताते है कि हम लोग को भी हमारे यीशु के जन्मतिथि नही जानते थे लेकिन आज मना रहे है.. किसी निश्चित तिथि को मानकर मान रहे है 25 दिसंबर को क्रिसमस के रूप में मनाते है और आज पूरा विश्व विख्यात हो गया… आप लोग भी एक काम कीजिये की हम लोग 25 दिसम्बर को मनाते है तो आप लोग भी हमारे त्यौहार के एक हफ्ता पहले या बाद में निर्धारित कर मान सकते हो और धूमधाम से जयंती मनाओ… ये बात नकुलदेव जी के मन में एक नया ऊर्जा भरी और नकुलदेव जी मन में ठान लिया कि गुरु घासीदास जी के जयंती तो मनाकर ही रहेंगे… और दादा जी गुरु घासीदास जी के जयंती 18 दिसंबर को फिक्स किया और बहुतों से इस बात में चर्चा किया गुरु परिवार से भी किया तो गुरु परिवार मना कर दिए और भंडारपुरी में नही मनाने दिया तो दादा जी अपने ही गांव भोरिंग में अकेले ही 18 दिसंबर 1936 को पहली बार जैतखाम में पालो चढ़ाकर मनाया और उसके बाद फिर दादा जी गांव गांव घूम घूमकर पर्चे बांटकर गुरु घासीदास जयंती 18 दिसम्बर को प्रचारित किया जो 2 साल के बाद रंग लाया और सन 1938 में लगभग पूरे छत्तीसगढ़ में मनाया गया और इस बात को गुरु परिवार भी फिर स्वीकार किये….और आज प्रत्येक साल 18 दिसम्बर को गुरु घासीदास जी के जयंती मनाते है..और केवल 18 दिसम्बर ही नही वरन पूरा दिसम्बर महीना मनाते है कुछ का तो जनवरी भी चला जाता है..इस तरह नकुलदादा जी के पूरा समाज ऋणी है।